नियामगिरी बचाने को आदिवासियों को आंदोलन : 2
जंगली जानवर हमारे साथी, उनसे खतरा नहीं... डराती तो हमें रेल सड़क और फैक्टरी है
नियामगिरी की पहाड़ियों से मनोज ठाकुर की रिपोर्ट
पहाड़ पर शाम थोड़ा जल्दी आती है। अंधेरा तो देखते देखते हो जाता है। पुलिस का भी भय यहां लगातार बना रहता है। माओवादियों की मौजूदगी भी यहां है। ऐसे में अंधेरा होते ही हमें अपना सफर रोकना पड़ा।
हम रात्रि विश्राम के लिए पहाड़ की तली में बसे एक गांव में रूकते हैं। यह इंतजाम भी साथी ने कराया था। मेजबान के पास चारपाई नहीं थी। लिहाजा सभी को नीचे सोना था। लेकिन मुझे जमीन पर नींद नहीं आ रही थी।
इस गांव में बिजली नहीं है। गर्मी और उमस थी। बीच बीच में हवा का झौंका आ जाता था तो थोड़ी राहत मिलती थी। मुझे छोड़ कर बाकी सभी गहरी नींद में थे।
आदिवासियों की सुबह थोड़ी जल्दी हो जाती है। आवाज सुन कर मैं भी उठ गया। प्लास्टिक के कप में काली चाय और इसके साथ चावल के मुरमुरे नाश्ते में खाकर हमने पहाड़ की चढ़ाई शुरू कर दी।
आठ घंटे हम जीप से चले। जैसे ही उतरे तो लगा कि हम आसमां के बीच में हैं। बादल हमारे सिर के आस पास घूम रहे थे। पहाड़ की चोटी पर यह समतल जगह काफी सुंदर थी।
पांच या सात घर यहां होंगे। गांव से कुछ दूर एक खुले मैदान में कुछ लोग चावल बना रहे हैं। कुछ दाल या सब्जी बनाने में जुटे हुए हैं। एक मचान बना रखा है,इसमें पके हुए चावल डाले जा रहे थे। दोपहर हो चुकी थी।
अब आदिवासी जुटना शुरू हो गए। पहले छोटे छोटे झूूंड । फिर देखते ही देखते जंगल से आदिवासियों की टोलियां आना शुरू हो गई। वह बहुत उत्साहित थे। हाथों में पारंपरिक हथियार लेकर वह अक्सर चलते हैं।
सभा में भी वह हथियार लेकर आए थे। हथियार क्या, किसी के पास लाठी, डंडा, तीर कमान और कुल्हाड़ी। यह हथियार जंगल में जरूरी भी है। आखिर कोई जानवर सामने आ गया तो खाली हाथ तो सुरक्षा हो नहीं सकती।
सबसे पहले ग्राम देवता को स्थापित किया गया। बुजुर्ग आदिवासी महिलाएं इस काम के लिए आगे आयी। पूजा के बाद स्वागत समारोह हुआ।
और इसके बाद आदिवासियों ने बताया कि क्यों नियामगिरी उनके लिए जरूरी है। क्यों इसके लिए संघर्ष करना चाहिए। यहां बाहर से भी कुछ वक्ता आए हुए थे। भाषा की थोड़ी समस्या आ रही थी।
लेकिन उनके भाव से मैं उनकी बात और परेशानी समझने की कोशिश कर रहा था।
मैंने साथी से पूछा कि आदिवासियों के पास संदेश पहुंचने के लिए क्या इंतजाम होते हैं। उन्होंने बताया कि कुछ नहीं। गांव में एक व्यक्ति को संदेश भिजवा दो, वह बाकी को दे देगा। इसी तरह से गांव दर गांव संदेश पहुंच जाता है।
उनकी बात में दम था। इस सभा में कोई ढाई हजार के करीब महिलाएं और पुरूष आए हुए थे। युवा लड़के लड़कियों की संख्या भी अच्छी खासी थी। सभी ने कसम उठाई कि वेदांता कंपनी के झासे में नहीं आएंगे।
अपना पहाड़ खनन के लिए नहीं जाने देंगे।
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आदिवासियों ने बताया कि पहाड़ से पानी आता है,इससे वह अपनी प्यास बुझाते हैं। फसल की सिंचाई करते हैं। जंगल से तेंदू पत्ता मिलता है। इसे बाजार में बेचते हैं। थोड़ा सा पैसा मिल जाता है। उससे गुजारा हो जाता है। हम इस जंगल में जंगली जानवरों के साथ रहते हैं। हमें उनसे कोई खतरा नहीं है।
हम एक दूसरे की रक्षा ही करते हैं। जंगल में जैव विविधिता है। जो हमारे लिए बहुत जरूरी है। हमने तो जन्म जंगल में लिया है। यहां ही मरना है। हमसे हमारी जमीन न छीनी जाए। उन्होंने कहा कि जंगल में हमें न तो डर लगता है। न ही यहां किसी तरह की दिक्कत महसूस होती। हमें तो सड़क और रेल डराती है। क्योंकि जहां जहां सड़क और रेल आयी।सब कुछ तबाह हो गया। रेल और सड़क हमारी पहचान छीन लेती है। रेल में बाहर से लोग आते हैं। और हमें धकेल देते हैं दूर। हमें यहां से विस्थापित नहीं होना। मैं सोच रहा था,
यहां सभी आदिवासी आत्मनिर्भर है। सभी के पास काम है। लेकिन यदि जंगल उनसे छिन गया तो वह सभी बेरोजगार हो जाएंगे। दूसरे पर निर्भर होना पड़ेगा। इन्हें न हमार विकास चाहिए। न हमारी रेल चाहिए। न पक्के मकान या सड़क चाहिए। इनकी अपनी भाषा है। अपनी तहजीब है। इलाज भी यह स्वयं कर लेते हैं। फिर क्यों हम इनके इलाकों में घुसपैठ करना चाह रहे हैं।
हमने विकास के नाम पर जंगल काट दिए हैं। जंगली जानवरो को पलायन करने पर मजबूर दिया। वह तो कुछ बोल नहीं आए। फिर विकास जंगल में बसे आदिवासियों तक पहुंचा। वह चुप नहीं रहेंगे। वह जंगल को नहीं खुद को बचा रहे हैं।
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