नियामगिरी बचाने को आदिवासियों को आंदोलन : 1
पहाड़ हमारा देवता है, जिंदगी है, हमने मत छीने, इसके बिना जिंदा कैसे रहेंगे?
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नियामगिरी पहाड़ कुछ ऐसा दिखता है,इस पहाड़ की तलहटी में बसे इस गांव में मेरा पहला पड़ाव था |
नियामगिरी ओडिया
मुझे जब काला हांडी की असाइनमेंट मिली तो मेरे मन में पहला ख्याल आया, भूख से लड़ते किसान। बदहाल क्षेत्र । बंजर जमीन। वह इलाका जिसके बारे में मैं अक्सर सुनता रहा हूं। वहां मुझे जाने को बोला गया था।
मैं तो तुरंत तैयार हो गया।
मैंने दिल्ली से रायपुर छत्तीसगढ़ के लिए फ्लाइट ली। यहां रेल और बस का सफर तय कर मैं भिवानी पटना पहुंचा। रात हो गई थी। होटल की तलाश में मैं इधर उधर भटक रहा था। एक होटल मिल गया। मैंने रात गुजारी।
सुबह मेरे मित्र ने एक एक्टिविस्ट को तैयार किया था, जो मेरे साथ पहाड़ पर जाने को तैयार थें। हम कोई नौ बजे जीप से निकलने। साथी ने कहा कि पार्सल ले लेते हैं। मुझे लगा कि कोई सामान होगा। लेकिन जब वह आए तो खाने का खासा सामान साथ में था।
इसे वह पार्सल बोलते थे। मैंने पूछा काला हांडी कहां है? उन्होंने बताया कि भिवानी पटना को ही काला हांडी कहते हैं।
हम शहर से कोई 20 किलोमीटर दूर आए होंगे। घने जंगल ने हमारा स्वागत किया। जगह जगह लिखा था, हाथियों का इलाका। मैं इधर उधर देख रहा था, शायद कोई हाथी मिल जाए।
लेकिन नहीं दिखाई दिया। जब साथी ने कहा कि
नाश्ता करते हैं। मैं अतिरिक्त उत्साह में था। कालाहांडी को देखने के। समझने के। इसलिए भूख महसूस नहीं हो रही थी। थोड़ा सा खाया। फिर चल दिए। कोई चार या पांच घंटे हम लगातार चलते रहे। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। मैं तो जंगल और पहाड़ देखने में व्यस्त था।
हम मुख्य सड़क से कट कर एक संकरे रास्ते से होते हुए एक गांव के कच्चे रास्ते पर आ गए। थोड़ी चढ़ाई थी। और फिर सामने एक छोटा सा गांव। पहाड़ी के नीचे। यह नियामगिरी है।
कितनी सुंदर पहाड़ी। इसकी तलहटी में बसा यह छोटा सा गांव। ऐसा लग रहा था मानो
प्राकृति स्वयं यहां आंचल फैला कर स्वागत कर रही हो। मैं कुछ देर पहाड़ देखता रहा। गांव में सात या आठ घर होंगे। एक आदिवासी लकड़ी ने जोरदार तरीके से सेल्यूट किया।
मैं उसकी ओर देखता रहा। उसने चलने का इशरा किया तो मैं उसके पीछे पीछे चल दिया।
यहां गर्मी बहुत ज्यादा थी। लेकिन हवा में थोड़ी सी ठंडक थी।
हम एक झोपड़े में गए। नियामगिरी पहाड़ को बचाने में इस गांव के लोग मुख्य भूमिका निभा रहे थे। पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिए छापेमारी कर रही थी। इसलिए ज्यादातर पुरूष पहाड़ पर थे। गांव में बच्चे व महिलाएं ही ज्यादा थी।
फिर भी यहां आंदोलनकारियों का आदिवासी नेता मेरे से मिलने आ ही गया।
मैं उनसे देर तक बातचीत करता रहा। साथी ने दुभाषिये का काम किया। मैं यह समझना चाह रहा था कि एक ओर पुलिस, सत्ता, सरकार, पैसा और कंपनी है, दूसरी ओर थोड़े से आदिवासी। जिनकी भाषा भी उनके इलाके से बाहर शायद ही किसी की समझ में आए। वह कैसे इतनी लंबी लड़ाई लड़ सकते हैं?
उन्होंने मेरे इस सवाल का जवाब दिया। पहाड़ हमारा देवता है। इसके लिए हम जान भी दे देंगे, पहाड़ नहीं देंगे। जब वह आदिवासी यह बोल रहा था, मैं उनके चेहरे पर गुस्सा, आत्मविश्वास और कुछ कर गुजरने का जज्बा देख रह था।
महिलाएं भी पुरूषों के साथ इस संघर्ष में साथ थी।
यहां हमने खाना खाया। पत्ते पर खाना खाने का यह मेरा पहला अनुभव था। लेकिन मजेदार रहा।
यहां करीब हम छह बजे तक रूके। आदिवासियों ने बातचीत करके एक बात तो मेरे समझ में आ गई थी कि यह अपनी बात के पक्के हैं। जो ठान लिया वह करके रहेंगे। किया भी है। नियामगिरी पहाड़ से वेदांत के खनन को पहले भी एक बार रूकवा चुके हैं। क्या इस बार ऐसा हो पाएगा? मैं यह सोचता हुआ जीप में बैठ कर अगले गांव की ओर जा रहा था।
कालाहांडी, यहां के बदहाल किसान, और यहां की गरीबी अब मेरे जेहन से बाहर निकल चुकी थी।
यहां मेरे मन में अब यह विचार आ रहा था कि क्या विकास के लिए किसी को उसकी जमीन से यूंं बेदखल करना ठीक है। आखिर इनका कसूर क्या है? यह आदिवासी तो पहाड़ और उन जगह पर रह रहे हैं, जिससे हमारा वास्ता भी नहीं होता।
लेकिन कंपनियों ने इनके पहाड़ में भी बाक्साइड खोज लिया। उन्हें यह बाक्साइड चाहिए। उन्हें इस बात की परवाह ही नहीं कि इन आदिवासियों का क्या होगा? पूरा सिस्टम कंपनी को सपोर्ट कर रहा है। ऐसे में यह आदिवासी कैसे लड़ाई लड़ पाएंगे? मैं बस अब यह सोच रहा था।
ओडिसा के नियामगिरी की पहाड़ियों में कोई एक दशक पहले आदिवासी जिसमें डोंगरिया कोंध और दूसरे समूह शामिल थे, ग्राम सभाएं आयोजित कर वेदांता को नियामगिरी की पहाड़ियों से वापस जाने पर मजबूर कर दिया था। मात्र 12 गांव जिनकी आबादी आठ हजार के आस पास थी। वेदांता कंपनी को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था।
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