जामकानी: जिस आम के पेड़ के नीचे ग्रामीण              प्रदर्शन कर रहे हैं, कभी यहां उनके घर हुआ                 करते थे



हरियाणा और पंजाब में उन गांवों को बेचिराग कहते हैं, जहां कोई नहीं रहता। ऐसे गांवों का रेवेन्यू दस्तावेजों में रिकॉर्ड रहता है। बस  नाम दे दिया जाता है बेचिराग गांव। गांच बेचिराग क्यों हो जाते हैं? कौन करता है, गांव के लोगों को उनकी जमीन से बेदखल। 

मेरे मन में यह सवाल हमेशा उठता रहता था। यह समझने में लिए मैं इन दिनों औड़िसा में हूं। यहां माइनिंग के लिए ग्रामीणों को बेदखल किया जा रहा है। ऐसा ही एक गांव है जामकानी। गांव को वेदांता की माइन के लिए  को उजाड़ दिया गया। 


मैं  आज यानी 28 जुलाई को जामकानी में हूं। सुंदरगढ़ जिले के इस गांव में पहुंचने का रास्ता जोखिम भरा है। कोयले से लदे हजारों ट्रक, बार बार रफ्तार को रोक देते हैं। रेलवे ट्रक पर भी कोयला लदे वैगन दौड़ते नजर आते हैं। मैं सुबह ही कोरबा से जामकानी के लिए निकला तो इस उम्मीद में था कि शाम को वापस जाएगा। लेकिन ऐसा संभव हो पाया। क्योंकि जिस गाड़ी में मैं जामकानी जा रहा था, सड़क पर ट्रक की बड़ी संख्या की वजह से वह स्पीड से चल ही नहीं पा रही थी।



खैर 110 किलोमीटर के सफर को तय करने में मुझे चार घंटे से भी ज्यादा का समय लग गया। जैसे तैसे हम जामकानी पहुंचे, यहां यहां वेदांता की कोल माइन नजर आई। जैसे ही हमारी गाड़ी माइन के नजदीक पहुंची तो कुछ बैलरो गाड़ियां हमारे इर्द गिर्द घूमने लगी। उन पर लाल रंग के झंडे लगे हुए थे।



अब भले ही देश में वीवीआईपी कल्चर को खत्म करते हुए झंडी और लाल बत्ती पर रोक हो,लेकिन यहां यह नियम लागू नहीं होता। हो भी कैसे? यहां तो कंपनियों की मनमानी चलती है। किसी फिल्मी दृश्य की तरह यह बेलेरो में कंपनी के कर्मचारी और कुछ मसलमैन टाइप लोग बैठे हुए थे।

मैं थोड़ा घबरा रहा था, हालांकि माइनिंग और इस तरह के विपरीत हालात में काम करने का मेरा पुराना अनुभव है। हरियाणा और पंजाब में माइनिंग माफिया के खिलाफ खूब रिपोर्ट किया। यमुनागनर में भी माइनिंग माफिया की अवैध गतिविधियों को खूब कवर किया,लेकिन यहां की बात थोड़ी अलग थी। यहां रिस्क काफी ज्यादा था। यह इलाका नक्सली है, दूसरा यहां कंपनियों की मनमानी हद दर्जे की है। पुलिस के कुछ कर्मचारी भी यहां कंपनियों के इशारे पर काम करते हैं।



सुरक्षा के लिए खतरा बता कर किसी को भी अंदर डालना यहां आम बात है। ट्रक से टक्कर मार देना या फिर सीधे गोली भी आसानी से मारी जा सकती है। कहना गलत नहीं होगा यहां जान का जोखिम ज्यादा था। फिर भी मुझे रिपोर्ट करना था... इसके लिए मेरे उपर कोई दबाव नहीं था। बस मेरी इच्छा भी। ... रिस्क अब कोई मायने नहीं रखता था।

 


मैं जैसे ही जामकानी माइन के नजदीक पहुंचा तो सामने वेदांता कंपनी के बोर्ड नजर आने लगे। कुछ दूर और चलने के बाद एक फटा हुआ टेंट नजर आया। इसके नीचे कुछ लोग बैठे हुए थे।


मेरी इच्छा थी कि गाड़ी को दूर छोड़ कर पैदल ही ग्रामीणों तक जाया जाए। लेकिन चालक साथी ने कहा कि ऐसा करना सुरक्षा के लिहजा से रिस्की हो सकता है। मैं गाड़ी दूर इसलिए छोड़ना चाहता था, ताकि ग्रामीण यह समझे कि मैं बाहर से आया हूं। बातचीत में किसी तरह का संकोच हो,इसलिए मैं गाड़ी दूर खड़ी करना चाह रहा था। यहां रिपोर्ट के लिए मैंने अपेक्षाकृत खासे साधारण कपड़े खरीदे थे।


यह इसलिए मैं, ग्रामीणों को यह दिखाना चाहता था कि मैं भी उनके बीच से हूं, कोई अलग नहीं।



टैंट जिस जगह लगा हुआ है,इससे कोई पांच सौ मीटर की दूरी पर वेदांता कंपनी की माइन का गेट नजर आता है। अंदर काम शायद बंद है। कंपनी की बड़ी बड़ी मशीन बंद थी। गेट के उस पार से कोई आवाज नहीं रही थी। इससे सहज ही अंदाजा लग रहा था कि काम शायद बंद है। गेट तक जाने की इजाजत किसी को नहीं है। सिर्फ कंपनी के लोग या समर्थक ही गेट तक जा सकते है।




एक तरफ पुलिस के कुछ जवान  बैठे हुए हैं। बाहर से जब भी कोई इधर आता है तो वह अतिरिक्त चौकस हो जाते हैं। मेरे यहां पहुंचने पर भी वह चौकन्ने से हो गए थे। बार बार यह देख रहे थे कि कौन आया है? वह यहां क्याा कर रहा है?


गाड़ी से जैसे ही उतर कर मैं टैंट के नीचे आया तो एक ग्रामीण ने कुर्सी मेरी तरफ कर दी। वही हुआ,जो मैं नहीं चाहता था। मैंने कुर्सी पर बैठने से मना कर दिया। ग्रामीणों को सामान्य करने के लिए मैं उनके बीच में ही बैठ गया।


एक महिला प्रदर्शनकारी बहुत निराश थी। उसकी बातचीत से उसकी मन की स्थिति का अंदाजा लग सकता था। उसने मेरे से पूछा आखिर हमारा कसूर क्या है? मेरे पास उसके इस छोटे से सवाल का कोई जवाब ही नहीं था।




यह ग्रामीण यहां 15 जून से बैठे हैं।


उन्होंने सवाल किया कि उनके घर छीन लिए गए हैं। उनके घर के नीचे कोयले का भंडार है, इसमें उनका कसूर क्या है? इस कोयले के लिए उन्हें विस्थापित किया जा रहा है।


हम क्या मांग रहे हैं? सिर्फ इतना भर हमें दे दो कि हम अपना गुजरा कर सके। लेकिन कंपनी इसके लिए भी तैयार नहीं है। हमारे बच्चों को नौकरी दी जा रही है, ही उचित मुआवजा दिया जा रहा है।



पास की कुर्सी पर बैठे बुजुर्ग ने बताया कि जिस आम के पेड़ के नीचे हम बैठे हैं, यहां कभी उसका घर हुआ करता था। कच्चा घर था,लेकिन सुकून था, आज तो घर है सुकून है। यह पूरा गांव विस्थापित कर दिया गया है। क्योंकि यहां वेदांता की कोयले की खदान है।



गांव में अब एक झौपड़ी बची है, कुछ बिजली के पोल खड़े हैं। जो इस बात को तस्दीक करते हैं कि यहां कभी कोई एक गांव हुआ करता होगा। कुछ पेड़ है, जो कभी किसी के आंगन में छाया देते रहे होंगे,लेकिन आज वह खुले में खड़े हैं। घर और घरवालों को इस जमीन से बेदखल कर दिया है। बस पेड़ ही बचे हैं जो जता रहे इस जमीन पर अपना मालिकाना हक जता रहे हैं।




प्रदर्शनकारियों ने बताया कि हमने कोयल की खदान में काम नहीं रोका है। बस इतना किया कि कंपनी के ट्रक कोयला लेकर यहां से बहार निकलने पाए। वह बस रास्ता रोक रहे हैं।










प्रदर्शनकारियों को हटाने के बल और छल
अगली रिपोर्ट में पढ़े

 

प्रदर्शनकारियों के नाम उनकी पहचान छुपाने की वजह से नहीं दिए गए हैं



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