किसान आंदोलन किसका, किसके लिए और क्यों है?
आंदोलन ऐसे वक्त पर हो रहा है जब मोदी सरकार लगातार एक के बाद एक कड़े व कठोर निर्णय ले रही है। इस आंदोलन का वक्त वह है, जब देश में विपक्ष पूरी तरह से गायब है। वामपंथ अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। तो ऐसे में यह सोच बन रही है कि मोदी सरकार को घेरने का कृषि कानून एक बेहतर जरिया हो सकते हैं। और कमोबेश हो भी ऐसा ही रहा है। कम से कम अभी तक किसान आंदोलन पर मोदी सरकार बैकफुट पर नजर आ रही है।
किसानों से 12 दौर की बातचीत साबित करती है कि सरकार इस मामले को खत्म करना चाहती है। क्योंकि सरकार के रणनीतिकारों को लग रहा है कि यह मुद्दा बड़ा बन गया। उन्हें इसके इतने बड़े विरोध की उम्मीद नहीं थी।
लेकिन 26 जनवरी के बाद बहुत कुछ बदल गया है।
आम तौर पर जैसा होता है, यह आंदोलन भी अभी तक उसी दिशा में जाता नजर आ रहा है। पहले आंदोलन किसी मुद्दे पर होता है। फिर आंदोलन में थोड़ी बहुत हिंसा होती है। पुलिस कई मामले दर्ज करती है। इसमें एक चिरपरिचित धारा देशद्रोह की लगती है। इसके बाद आंदोलन के नेता मुद्दा छोड़ अपने को बचाने की मुहिम में लग जाते हैं। इस आंदोलन में 26 जनवरी के बाद ऐसा ही नजर आ रहा है। किसान नेता राकेश टिकैत का मंच पर रुदन की एक वजह यह भी मानी जा सकती है।
अब सवाल यह है कि यह आंदोलन है किसका, मेरा मानना है कि यह आंदोलन किसानों की बजाय जमींदारों को है। जिस विवादित टूलकिट की बात हो रही है
इसमें बताया गया कि भारत के किसानों का पहले जमींदारों ने शोषण किया, अब वहां की सरकार इस तरह के कानून बना रही है, जिससे उनका शोषण होगा। इस टूलकिट के बाद मेेरे मन में दो बातें आयी।
एक बार हरियाणा में घासी राम नैन के नेतृत्व में किसान आंदोलन हुआ था। जब एक किसानों व खेत मजदूरों व दलितों के लिए काम करने वाले एक छात्र संगठन ने इस आंदोलन में घासीराम नैन का साथ दिया था। आंदोलन के बाद संगठन में बहस हुई। मुद्दा था, क्या वह अपनी विचारधारा से भटक गए। क्योंकि यह माना गया कि घासीराम नैन जमींदारों की लड़ाई लड़ रहे है। वह जमींदार जो किसानों व खेत मजदूरों का शोषण करता है।
अब असली मुद्दा यह है कि कृषि कानूनों के लिए आंदोलन क्या किसान कर रहे हैं, या जमींदार। जिस तरह से बड़े बड़े ट्रैक्टर आंदोलन में आए, जिस तरह से ट्रैक्टर परेड हुई, इसमें क्या किसान थे या जमींदार। यह सवाल उठाना लाजिमी है। टिकरी बार्डर पर मुझे एक किसान नेता मिले, जो 36 लाख का मॉडिफायी ट्रैक्टर लेकर अांदोलन में पहुंचे थे। वह किसान की लड़ाई की आड़ में खुद की सियासी जमीन तलाश रहे थे। उन्होंने ट्रैक्टर पर तोप लगाने की चेतावनी दी थी।
इस पर उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज हो गया था। इसके बाद उनके सुर खासे बदले हुए थे। मैं जब उनसे कृषि कानून पर बात करने की कोशिश कर रहा था तो वह बिदक गए। जब सवालों का जवाब नहीं दे पाए तो उन्होंने कहा कि मैं विशेषज्ञ नहीं हूं। मैंने सवाल किया कि आप किसान तो हैं। मेरे सवाल तो खेती किसानी से जुड़े हैं। लेकिन यह नेता टाइप किसान सवालों से भाग खड़ा हुआ।
अब यदि यह आंदोलन जमींदारों का है तो फिर वाम दल इसमें क्या कर रहे हैं? उन्हें खुद से यह सवाल पूछना चाहिए। अक्सर गरीब, वंचित, खेत मजदूरों के हक में खड़ा होने का दावा करते हैं। वामपंथियों की एक दिक्कत है, यह बोद्धिक जुगाली तो अच्छी कर लेते हैं। विरोध की राजनीति करने में यकीन रखते हैं। कभी समाधान की बात नहीं करेंगे। ज्यादातर हंगामे में यकीन रखते हैं। वामपंथियों के काम का तरीका एक एनजीओ की तरह होता है। क्योंकि दोनों का पता है, यदि समाधान हो गया तो जो फंड आ रहा है वह बंद हो जाएगा। इसलिए समस्या की बात करों, उसका चिंतन करो, लेकिन समाधान नहीं।
लगभग एक दशक से वामपंथियों का आधार भी तेजी से गायब हुआ है। अब इनके ज्यादातर घटक खत्म हो रहे हैं। राजनीति हो या फिर एक्टिविस्ट के तौर पर वामपंथियों का लगतार पतन हो रहा है। वामपंथी नेता शायद यह भूल गए कि पंजाब में उनके पतन की वजह क्या रही? उनके नेताओं की हत्या किस सोच के लोगों ने की है। क्या 26 जनवरी के हंगामे के पीछे उसी सोच के लोग थे। और यदि थे फिर आंदोलन के हक में खडे़ होने वाले वामपंथी अपना बोरिया बिस्तरा अभी तक गोल क्यों नहीं कर रहे हैं?
मेरा मानना है कि कृषि कानून की आड़ में कई हित साधे जा रहे हैं। कांग्रेस जो अपने कार्यकर्ताओं को खो रही है। वह विपक्ष के तौर नकारा है। हरियाणा में कभी तक कांग्रेस जिला कमेटी तक गठित नहीं कर पायी। कांग्रेस अपने अध्यक्ष तक का चयन नहीं कर पा रही है। ऐसी पार्टी से क्या उम्मीद करेंगे कि वह वह आम आदमी की आवाज बन सकती है।
हरियाणा से पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके राज्यसभा सदस्य पुत्र दीपेंद्र हुड्डा किसानों के हक में लगातार आवाज उठाने का दावा कर रहे हैं। लेकिन किसानों के लिए सीएम रहते हुए हुड्डा ने राष्ट्रीय बागवानी मिशन के करोड़ों के फंड की जो बंदरबांट की, वह उनकी किसान हितैषी सोच पर सवाल खड़ा करती है। इस पर कभी अलग से एक आर्टिकल लिखने की कोशिश करुंगा।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा और दीपेंद्र हुड्डा हरियाणा में कोई आंदोल खड़ा नहीं कर पाए। क्यों? यानी विपक्ष के तौर पर उनकी भूमिका क्या है? तो अब वह किसान के कंधे का इस्तेमाल कर प्रदेश सरकार को घेरने की एक कोशिश भर कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हरियाणा में सरकार के खिलाफ मुद्दे नहीं है, जिन पर सरकार को घेरा जाए। लेकिन कांग्रेस में दम नहीं है कि वह इन पर आंदोलन कर सके। इसलिए उन्हे किसान आंदोलन सरकार को घेरने का एक सुरक्षित और आसान रास्ता नजर आ रहा है।
पंजाब के गर्म ख्याली सोच के लोगों भी किसानों को अपने एजेंडे पर प्रयोग करना चाह रहे थे। वह इसमें कामयाब रहे। लेकिन नुकसान किसान का हो गया। मैं ट्राली टाइम निकालने वाली टीम से मिला, उनसे बातचीत की। मैं किसान आंदोलन पर डॉक्यूमेंट्री बना रही टीम के साथ दिन भर भटकता रहा। कोशिश यहीं थी कि मैं देखना चाह रहा था कि वह कर क्या रहे हैं। लेकिन उनकी सोच किसानों को लेकर कम और अपने एजेंडे को प्रमोट करने को लेकर ज्यादा रही।
जहां तक किसान नेताअों की बात करें तो गुरनाम सिंह चढ़ूनी आंदोलन की आड़ में अपने लिए सियासी जमीन तलाश रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि गुरनाम सिंह चढूनी ने किसानों के मुद्दे पर हरियाण में लगातार संघर्ष किया। लेकिन जैसा कि ज्यादातर एक्टिविस्ट के पतन का कारण यहीं होता है कि एक वक्त के बाद वह खुद को राजनेता के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं। गुरनाम सिंह चढूनी भी इस सोच से खुद को बचा नहीं पाए। यहीं हाल किसान आंदोलन को लीड कर ज्यादातर नेताओं का है।
जहां तक मीडिया की बात करें तो उनका भी एजेंडा स्पष्ट है। मेन स्ट्रिम मीडिया सरकार के साथ खड़ा होने की हर संभव कोशिश कर रहा है। इस वजह से आंदोलन को लेकर कई मौकों पर तथ्यों की अनदेखी हुई। यह उनकी संपादकीय नीति हो सकती है। जहां तक सोशल मीडिया की बात करें तो वह किसानों के मसले पर विधवा विलाप कर अपने लिए ज्यादा से ज्यादा सब्सक्राइब जुटाने की कोशिश मे एक तरफा रिपोर्टिग कर रहे हैं।
इस आंदोलन में जो भी दिख रहा हैं, उसका अपना एजेंडा है। जो नहीं दिखा रहा वह वंचित किसान और उसके मुद्दे है। ऐसे में सवाल यहीं है कि आंदोलन है किसके लिए? कौन आंदोलन कर रहा है? क्यों आंदोलन हो रहा है?
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