मीडिया किसानों के प्रदर्शन को इवेंट न बनाए , उनकी समस्याओं को उठाए
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मीडिया किसानों के प्रदर्शन को इवेंट न बनाए , उनकी समस्याओं को उठाए
किसान मजबूर है। वह परेशान है। उसे यूं सर्दी में सड़क पर बैठने का शौंक नहीं है। मीडिया उसकी समस्याएं समझे। उन्हें उठाए। जिससे किसान, समाज और उपभोक्ता सभी का फायदा हो। इसलिए मीडिया से गुजारिश है
कि वह किसान को जोकर न बनाए। उसे समझे।
इस छाेटी सी कहानी से समझ सकते हैं कि मीडिया क्यों किसानों की समस्या को समझ नहीं पा रहा है। एक गांव में छह नेत्रहीन थे। एक दिन गांव में हाथी आया। उन्होंने तय किया कि वह भी हाथी को छू कर महसूस करेंगे।
अब एक ने हाथी का पांव छुआ, तो बोला कि हाथी खंबे जैसा है। एक ने सूंड तो उसने बोला हाथी पेड़ के तने जैसा। एक ने कान छुआ तो उसने कहा कि यह तो हाथ के पंखे जैसा है। अब वह अपनी अपनी बात पर अड़े हुए थे।
तभी एक व्यक्ति वहां से आया। उसने विवाद की वजह पूछी, तो नेत्रहीन लोगों ने हाथी के बारे में बताया। इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि आप सभी सही बोल रहे हो, क्योंकि आपने उस हाथी के शरीर का एक अंग भर देखा है।
किसानों के दिल्ली मेंचल रहे आंदोलन पर मीडिया की कवरेज का भी कमोबेश यहीं रवैया है। मीडिया के साथी समस्याओं की गंभीरता और उसकी तह में जाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
मीडिया इसे इवेंट की तरह कवर कर रहा है। रिपोर्टिंग में इसे स्पॉट रिपोर्टिंग कहते है। लेकिन स्टोरी के अंदर, उसकी वजह, क्यों, कैसे जैसे तत्व खबरों से गायब है। यानी अंदर की बात सामने नहीं आ रही है।
अब सवाल यह है कि क्या यह आंदोलन सिर्फ कृषि कानूनों की वजह से हो रहा है। शायद नहीं। यह एक कारण है। जिससे किसान आंदोलनरत हो गए। अन्यथा किसान को उपेक्षित हुए तो जमाना हो गया। न मीडिया में, न नीति निर्धारण में न योजनाओं में किसान की असली समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाता।
इस वजह से समाज का एक बड़ा तबका किसानों की समस्या से वाकिफ नहीं है। उन्हें लगता है कि किसान खुशहाल है। वह मुफ्तखोर है। जिसे सरकार बहुत ज्यादा अनुदान देती है। उसे आयकर भी नहीं देना पड़ता। सस्ती बिजली, खाद व दवाएं मिलती है।
यह सच भी है। लेकिन इस स्थिति का दूसरा पहलू है। जो बेहद गंभीर है। वह यह है कि जितना भी अनुदान किसानों को मिलता है, वह बिचौलियों की जेब में जाता है। अनुदान का यह खेला ऐसा है, जिस पर अब चिंतन और मनन करने का समय आ गया है। क्योंकि इससे किसानों की अार्थिक स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ रही है।
हरियाणा में किसानों को बहुत ही कम दाम पर बिजली मिलती है। हरियाणा में 7400 करोड़ की सब्सिडी किसानों को दी जाती है। सरकारों को करीब 80 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त आर्थिक भार उठाना पड़ता है। कृषि क्षेत्र के लिए सबसे ज्यादा सब्सिडी दी जाती है।
पंजाब में मुफ्त में बिजली मिलती है। इसका पैसा सरकार भरती है। लेकिन क्या इससे किसानों की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। इस पर चर्चा होनी चाहिए। क्योंकि इसका लाभ बिजली कंपनियों को मिल रहा है। कहने को बिजली की सब्सिडी किसानों को दी जा रही है, लेकिन जा कहां रही है। यह समझना होगा। यह सब्सिडी उन प्राइवेट प्लेयर के पास जा रही है जो बिजली तैयार कर रहे हैं।
हरियाणा और पंजाब में किसानों को मिलने वाली 80 प्रतिशत सब्सिडी बिचौलिए खा रहे है। जिन उपकरणों पर सब्सिडी सरकार देती है, उनकी गुणवत्ता बेहद कमजोर है। लेकिन कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। इसी तरह से दवाओं और बीजों पर सब्सिडी किसानों को नहीं बल्कि कंपनियों को मालामाल कर ही है।
सब्सिडी घोटाला किसान समस्याअों का एक छोटा सा पहलु है।
गेहूं धान खरीद घोटाला, जो हर साल हो रहा है। हरियाणा में फर्जी धान की खरीद हर साल करोड़ों रुपए की होती है। यह भ्रष्टाचार इतना बड़ा है कि जितनी फसल किसान खेत में नहीं उगाता, उससे ज्यादा फसल खाद्य आपूर्ति विभाग के कुछ भ्रष्ट और रिश्वखोर अधिकारी और कर्मचारी कागजों में उगा देते हैं। सरकार इस पर रोक लगाने की बजाय नए कृषि कानूनों के तहत एमएसपी ही खत्म करने की कोशिश कर रही है। होना तो यह चाहिए कि ऐसे भ्रष्ट व रिश्वतखोर अधिकारियों व कर्मचारियों के खिलाफ ठोस कार्यवाही की जाए। लेकिन नहीं...।
आखिर क्यों हरियाणा में धान व गेहूं खरीद में सबसे ज्यादा घोटाले खाद्य आपूर्ति विभाग में होते हैं, जबकि दूसरी खरीद एजेंसियां हैफेड या कांफेड में क्यों नहीं? क्या इस पर कोई अध्ययन किया गया। जैसे कई जगह पुलिस के थानों में नियुक्ति के लिए पैसे का लेन देन होता है, इसी तरह से कई मंडिया खरीद इंस्पेक्टरों को बेची जाती है। नियुक्ति के लिए तयशुदा राशि ली जाती है। बताया तो यहां तक जाता है कि रिश्वत की यह रकम उपर तक जाती है।
इस खेल भ्रष्ट अधिकारियों, सरकारी चावल कुटाई करने वाले राइस मिलर्स और मार्केट बोर्ड के अधिकारियों की मिलीभगत के बिना हो ही नहीं सकता। सोचिए इस खेल में कितना भ्रष्टाचार है।
कोआपरेटिव सिस्टम को किसानों की जीवन रेखा माना जाता है। गुजरात का अमूल माडल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। हरियाणा और पंजाब में भी कोआपरेटिव सिस्टम किसानों के लिए मददगार साबित हो सकता है। लेकिन आज यह सिस्टम आर्थिक तौर पर जर्जर हो चुका है। राजनेताअों ने अपने फायदे के लिए कोआपरेटिव को खत्म सा कर दिया है।
भूमिविकास बैंक किसानों का मित्र बैंक माना जाता था। लेकिन आज वह खुद अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है। क्या कभी किसी सरकार ने इसके बारे में सोचा कि क्यों यह बैंक बदहाल हो गया।
किसानों को कर्ज देने के नाम पर बड़े खेल होते हैं। निजी बैंक किसानों को महंगी दरों पर कर्ज देते हैं। लेकिन गुपचुप तरीके से किसानों को कई तरह की पॉलिसी भी बेच देते हैं। आइसीआई बैंक ने इस तरह की कई गड़बड़ी की। इसी तरह से कई अन्य निजी बैंक भी इस खेल में शामिल है। किसान को बताया भी नहीं जाता, और उस पर महंगा कर्ज लाद दिया जाता है। दिक्कत यह है कि इसकी सुनवाई भी नहीं होती। किसान कहां शिकायत करें?
यह तो वह मोटे मोटे तथ्य है, जो सीधे तौर पर पर किसानों को प्रभावित कर रहे हैं। मीडिया को इसकी रिपोर्टिग के लिए बहुत मंथन करने की जरूरत नहीं है। यह बेहद आसान रिपोर्टिंग है। लेकिन दिक्कत यह है कि इसके लिए फिल्ड में आना पड़ेगा।
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