किसान आंदोलन व कृषि कानून

किसान आंदोलन व कृषि कानून  

 #farmerprotest सरकार फंसी, वापस ले तो मुश्किल, मांग माने तो मुश्किल 

कृषि कानूनों पर सरकार और किसान दोनो अड़े हुए हैं। सरकार क्यों अड़ रही है, इसकी वजह समझ से परे हैं। जहां तक किसानों का सवाल है, उनकी मांग जायज है। इसे राजनीति से प्रेरित बोल कर खारिज नहीं किया जा सकता।
#कृषि कानून #farmerprotest कृषि कानून: सरकार फंसी, वापस ले तो मुश्किल, मांग माने तो मुश्किल


कृषि क़ानूनों पर किसानों के दिल्ली में चल रहे आंदोलन पर केंद्र सरकार मुश्किल में फंस गयी है। यह ऐसी स्थिति बनी गयी कि इससे वापस करना अब आसान नहीं है। किसान अपनी मांगों पर अड़ गए हैं। इधर सरकार भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।

 

 इसके पीछे वजह भी है। बड़ी वजह यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि ऐसी रही है कि जो भी निर्णय ले लिया उसे हर हालात में लागू करना है। वह निर्णय चाहे नोटबंदी का हो, जीएसटी का हो, सीएए और एन आरसी  या फिर लॉकडाउन का। अब ऐसा ही निर्णय कृषि क़ानूनों का है।


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अब यदि केंद्र सरकार इस कानून को वापस ले लेती है तो जाहिर है, इससे जो सरकार एक छवि बनी है, वह टूटती नजर आ रही है। दूसरी सबसे बड़ी वजह यह है कि यदि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात मान लेती है तो अब पूरे देश में फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य देना पड़ेगा।


 जबकि अभी तक न्यूनतम समर्थन मूल्य पंजाब व हरियाणा में धान, गेहूं को ही सबसे अधिक मिलता है। यूपी, बिहार व देश के अन्य राज्यों में कमोबेश एमएसपी किसानों को मिल ही नहीं पाता।


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सरकार किसानों की यह मांग मान लेती है, इससे देश भर में एमएसपी देना पड़ सकता है। यह भी एक वजह है कि सरकार इससे बचना चाह रही है।

 

 लेकिन जिस तरह से किसान पीछे हटने को तैयार नहीं है, इससे सरकार के सामने गंभीर संकट की स्थिति बनी हुई है। हालांकि सरकार की ओर से कोशिश हो रही है कि किसानों पर काउंटर अटैक किया जाए।

 

 इसके लिए किसानों से संवाद नाम का एक कार्यक्रम भाजपा ने शुरू किया है। लेकिन लगता नहीं इसका लाभ सरकार को मिल पाएगा।

 

 सबसे बड़ी बात तो यह है कि आखिर जब किसान नहीं चाह रहे हैं कि कृषि कानून लागू हो, फिर सरकार क्यों किसानों को इसका ज़बरदस्ती लाभ देना चाह रही है।



 

कृषि क़ानूनों में जिन सुधारों की बात सरकार की ओर से की जा रही है, वह यथार्थ के धरातल पर सही नहीं है। कृषि क्रांति से लेकर अभी तक किसानों को ठगा ही गया है। 

 

किसान के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। स्थिति यह है कि अब जैसे जैसे जमीन कम हो रही है, उसी तरह से किसान की आमदनी घट रही है। रही सही कसर बढ़ती महँगाई पूरी कर रही है। आज 90 प्रतिशत किसान बदहाल है।

 

लगभग इतने ही किसान आढ़ती या साहुकार से कर्ज लेकर अपने घर का चूल्हा चला रहे हैं। लेकिन सरकार इस तथ्य को समझने को तैयार नहीं है। यह कृषि सुधार बिल उन विशेषज्ञों ने तैयार किए जो बोतल में मनीप्लांट तक उगा नहीं सकते।


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इस पर उनका तुर्रा यह है कि वह किसान की आमदनी बढ़ाने के लिए कृषि सुधार लेकर आ रहे हैं। यह बड़ा भ्रम है, जो सरकार की ओर से फैलाया जा रहा है।

 

शांता कुमार कमेटी ने एमएसपी पर एक रिपोर्ट पेश की थी। इसमें दावा किया गया था कि देश में छह प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिल पाता है।

 

 बाकी के 94 ् प्रतिशत किसान तो बाजार के हवाले हैं। अब यदि बाजार किसानों को इतना ही हितेषी है तो किसान बार बार क्यों एमएसपी की मांग कर रहे हैं।

 

इस बिल में जो प्रावधान किया गया कि किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकते हैं। यह भी ज्यादातर किसानों के लिए संभव नहीं है। किसान का फसल चक्र इस तरह से हैं कि वह एक फसल की कटाई करने के बाद दूसरी फसल की बिजायी की तैयारी कर देता है।

 

 इसके अलावा किसानों के पास ऐसे संसाधनों का अभाव है कि वह दूर दराज फसल लेकर जा सके। इस तथ्य को हम इस तरह से भी समझ सकते हैं कि बासमती किस्म की धानों का सरकार एमएसपी नहीं देती।

 

 

 अब इसके दाम में जो उतार चढ़ाव होता है, इससे नुकसान में किसान ही रहता है। इसी तरह से सब्जी उत्पादक किसान है। कभी आलू के दाम डाउन तो कभी इतने बढ़ जाते हैं कि आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाते हैं।


 क्या बढ़े दामों का फायदा किसानों को मिल पाता है। इस पर सरकार ने आज तक कोई स्टडी नहीं करायी। अलबत्ता यह सच है कि दाम बढ़ने का लाभ किसानों को नहीं मिलता। यह लाभ स्टोर करने वाले व वह व्यापारी उठाते हैं, जिनके पास पैसा है, जो फसल को स्टोर कर सकते हैं।

 

 इसलिए यह तर्क बहुत ही हैरान करने वाला है कि बाजार के हवाले किसानों को करने से किसान को लाभ मिलेगा। यदि सरकार की यह बात सच है तो फिर क्यों नहीं बासमती उत्पादक किसान आर्थिक दृष्टि से मजबूत हुआ?

 

दूसरा सरकार के इस तर्क का यह भी जवाब है कि यूपी और बिहार में क्योंकि मंडी सिस्टम नहीं है। इसलिए वहां मोटी धान उत्पादक किसानों को धान का एमएसपी नहीं मिल पाता।


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 यूपी के किसान मोटी किस्म की धान को भी तय समर्थन मूल्य से तीन सौ से चार सौ रुपए, कई बार तो आधे दाम पर भी बेचने को मजबूर हो जाता है। 

 

अब यदि मंडी सिस्ट्म खत्म होता है तो यहीं हाल हरियाणा और पंजाब के किसानों का नहीं होगा क्या?इसलिए सरकार की ओर से मंडी सिस्टम पर गलत जानकारी दी जा रही है।

 

किसानों की मांग है कि एमएसपी जरूरी होना चाहिए, उनकी फसल एमएसपी से नीचे न बिके। यह वाजिब मांग है। अब भले ही हरियाणा सरकार यह दावा करे कि मक्का, बाजरा व सरसो की फसल एमएसपी पर खरीदी जा रही है।

 

 हकीक़त यह है कि इन फसलों को किसान एमएसपी से नीचे बेचने पर मजबूर है। यह हर साल का सिलसिला है। सरकार को यह तथ्य पता है, लेकिन दावा हर बार किया जाता है कि इन फसलों का एमएसपी दिया जा रहा है। 

 

इसलिए दिल्ली की सीमा में बैठे यह किसान यदि एमएसपी की मांग कर रहे हैं तो यह गलत नहीं है। सरकार को सोचना चाहिए कि किसानों की यह मांग किस राजनीति से प्रेरित नहीं है। यह मांग उनके एमएसपी पर लंबे कड़वे अनुभव के बाद उठी है।

 

किसानों को यदि फसलों का उचित दाम मिलता तो शायद वह इस तरह की मांग न उठाता। अंत सरकार को चाहिए कि वह किसानों की एमएसपी की मांग को राजनीति जामा पहनाने की बजाय इस पर सहानुभूति पूर्वक विचार करें।

 

 इससे जल,जंगल और जमीन के साथ साथ देशवासियों की रोटी को भी महफूज रखा जा सकता है।



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